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- स्कंद पुराण के श्रीमद्भागवतम महात्म्य: | ISKCON ALL IN ONE
Informazioni sull'argomento: परम भगवान ने कहा: हे दादाजी ब्रह्मा, एक को नियमित रूप से प all'avore निश्चित रूप से जान लें कि ऐसी सुनवाई ही मुझे संतुष्ट करने का एकमात्र साधन है जो व्यक्ति प्रतिदिन श्रीमदcolगवत का पाठ करता है, उसे भूरी गाय को दान में देने का फल हर अकर अकर के के साथ पाथ पाप होता है है है है है है है है है है जो प्रतिदिन श्रीमद्भागवत का आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता या सुनता है, उसे एक हजार गायों को दान में देने क फल फल प्राप होता है है मेरे प्रिय पुत्र, जो प्रतिदिन पूर्ण एकाग्रता के साथ श्रीमद्भागवत का पाठ करता है, उसे 18 पुराणों के अध्ययन का फल प पाप होत होत है है प्रह्लाद महाराज जैसे वैष्णव हमेशा श all'avore जो लोग श्रीमद्भागवतम की पूजा करते हैं वे काली के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं जो व्यक्ति अपने घर में वैष्णव साहित्य श्रीमद्भागवतम की पूजा करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं और देवतर कलियुग में, मैं उन लोगों से बहुत प्रसन्न हो जाता हूं जो नियमित रूप से अपने घर में श्रीमद्भागवतम की पूजा करते हैं और बिना किसी भय के नृत नृत करते हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृत नृतens हे मेरे प्रिय पुत्र, जब श श्रीमद्भागवतम् किसी के घर में रहता है, तब तक उसके पूर्वज दूध, घी, शहद और जल क सेवन करते हैं।। हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं हैं जो कोई वैष्णव को भक्तिपूर्वक श्रीमदाभ का उपहार देता है, वह मेरे निवास में लाखों कल्पों के लिए निवास करता है है है है है है है है है जो अपने घर में हमेशा श all'avore श QIOME Vuoi sapere cosa vuoi fare? कलियुग में जहाँ भी श्रीमद्भागवत का पाठ किया जाता है, वहाँ मैं समस्त देवताओं सहित निवास करता हूँ हूँ मेरे प all'avore a हे ब्रह्मांड के भगवान, प्रसिद ei श्रीमद्भागवतम के श्रवण से व all'avore मैं उसके घर में रहता हूँ जिसने वहाँ श्रीमद्भागवत का एक श्लोक, आधा श्लोक या एक चौथाई श्लोक भी रखा है श्रीमद्भागवत के श्रवण से जो पवित्रता प all'avore a हे चतुर्मुख ब्र amici मैं उसे कभी नहीं छोड़ता जिसे श all'avore जो सम्मान में खड़ा होता है और फिर श्रीमदcolभ को देखक देखकर प्रणाम करता है, उससे मैं प्रसन्न हूं श्रीमद्भागवत की परिक्रमा करने वाला व all'avore इसमें कोई शक नहीं है। Capitolo 2.8.4 Informazioni sull'argomento: गीतां च स्व-चेष्टम्: Per esempio: भगवान विष्टे हिदीं जो लोग नियमित रूप से श्रीमद-भागवतम सुनते और हमेशा मामले को बहुत गंभीरता से लेते हैं, उनके हृदय में थोड़े समय भीतर भगवान श्री कृष्ण का वातिताव प पा प होग scopre
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- गोपीगीतम् | ISKCON ALL IN ONE
Gopi Geet ॥ गोपीगीतम् ॥ गोप्य ऊचुः । जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि । दयित दृश्यतां दिक्षु तावका- _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5CF58D_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5CF58D_ स्त्वयि धृतासवसावां विचिन्वते॥ १॥ शरदुदाशये साधुजातस- त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा । सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥ विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा- _cc781905-5cde-3194-bb3b-136Bad5cf58d_ द्वर Quali वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया- Per saperne di più ३॥ न खलु गोपिकानन्दनो भवा- विखनसार्थितो विश्वगुप्तये Per saperne di più ४॥ विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते Per saperne di più करसरोरुहं कान्त कामदं Per saperne di più ५॥ व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहानननं चारु दर्शय ॥ ६॥ प्रणतदेहिनां पापकर्शनं फणिफणार्पितं ते पदांबुजं _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136BAD5CF58D_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5cf58d_ कृणु कुचेषु नः कृन कृन्धि हृच्छयम् ॥७॥ मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया विधिकरीरिमा वीर मुह्यती- Per saperne di più ८॥ तव कथामृतं तप्तजीवनं Per saperne di più श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं Per saperne di più ९॥ प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं Per saperne di più रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति ि १०॥ चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् Per saperne di più शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः Per saperne di più ११॥ दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै- घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु- Per saperne di più १२॥ प्रणतकामदं पद्मजार्चितं Per saperne di più चरणपङ्कजं शंतमं च ते Per saperne di più १३॥ सुरतवर्धनं शोकनाशनं _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136BAD5CF58D_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5CF58d_ स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्। इतररागविस्मारणं नृणां Per saperne di più १४॥ अटति यद्भवानह्नि काननं _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5CF58D_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5CF58D_ त्रुटिरयुगttroयते तामपशामामा। कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5CF58D_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5cf58d_ जड उदीक्षतां पक्ष्दृशाम्॥ १५॥ पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा- _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5cf58d_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5cf58d_ नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्युतागताः। गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः Per saperne di più १६॥ रहसि संविदं हृच्छयोदयं बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते Per saperne di più १७॥ व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136BAD5CF58D_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5cf58d_ वृजिनहन्त्रulareयलं विश्वमङφ। त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां १८॥ यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136BAD5CF58D_ _CC781905-5CDE-3194-BB3B-136Bad5cf58d_ भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु। तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् _cc781905-5cde-3194-bb3b-136Bad5cf58d_ कूर्पादिभिादिभिर Quali १९॥
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KAMADA EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने पूछा: वासुदेव ! आपको नमस्कार है ! कृपया आप यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था। वशिष्ठजी बोले: राजन् ! चैत्र शुक्लपक्ष में 'कामदा' नाम की एकादशी होती ही वह परम पुण्यमयी है । पापरुपी ईँधन के लिए तो वह दावानल ही है । प्राचीन काल की बात है: नागपुर नाम का एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोने के महल बने हुए थे उस नगर में पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास ॕरते पुछ गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरी का सेरवन की वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था । उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था । वे दोनों पति पत्नी के रुप में रहते थे । दोनों ही परस्पर काम से पीड़ित रहा करते थे । ललिता के हृदय में सदा पति की ही मूर्ति बसी रहती थी और ललित के हृदय में सुन्दरी ललिता का नित्य निवास था। एक दिन की बात है । नागराज पुण्डरीक राजसभा में बैठकर मनोरंान कर रहहर उस समय ललित का गान हो रहा था किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी गाते-गाते उसे ललिता का स्मरण हो आया । अत: उसके पैरों की गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लीभ नागों में श्रेष्ठ कर्कोटक को ललित मन का सन्ताप ज्ञात हो गय गय अत: उसने राजा पुण all'avore कर्कोटक की बात सुनकर नागराज पुण all'avore उसने गाते हुए कामातुर ललित को शाप दिया : 'दुर्धुद्! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नी के वशीभूत हो गया, इसलिए राक्षस हो जा। ' महाराज पुण्डरीक के इतना कहते ही गन गन्धर्व राक्षस हो हो गय। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रुप - ऐसा राक्षस होकर वह कर्म का फल भोगने लगा। ललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन ही बहुत चिन चिन्तित हुई। भारी दु:ख से वह कष्ट पाने लगी । सोचने लगी: 'क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं…' वह रोती हुई घने जंगलों में पति के पीछे-पीछे घूमननॲे वन में उसे एक सुन्दर आश all'avore किसी भी प्राणी के साथ उनका वैर विरोध नहीं था । ललिता शीघ्र amici मुनि बड़े दयालु थे । उस दु:खिनी को देखकर वे इस प्रकार बोले : 'शुभे! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच-सच बताओ ।' ललिता ने कहा: महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं । मैं उन्हीं महात्मा की पुत्री हूँ । मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी अपने पाप दोष के कारण राक्षस हो गये ंै उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है । ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्त्तव्य हो, वह बताइये । विप्रवर! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षसभाव से छुटकारा पा जायें, उसका उपदेश कीजिये ॠषि बोले: भद्रे ! इस समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की 'कामदा' नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है है तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व all'avore पुण्य देने पर क्षणभर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जायेगा। राजन् ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ । उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के उन ब all'avore a मेरे पति का राक्षसभाव दूर हो जाय ।' वशिष्ठजी कहते हैं: ललिता के इतना कहते ही उसी क्षण ललित का पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया । राक्षसभाव चला गया और पुन: Per saperne di più नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति पत्नी 'कामदा' के प्रभ Schose यह जानकर इस एकादशी के व all'avore मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इस व्रत का वर्णन किया है है 'कामदा एकादशी' ब all'avore राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता हे Shri Suta Goswami disse: "Oh saggi, permettetemi di offrire i miei umili e rispettosi omaggi al Signore Supremo Hari, Bhagavan Shri Krishna, il figlio di Devaki e Vasudeva, per la cui misericordia posso descrivere il giorno di digiuno che rimuove tutti i tipi di peccati. Fu al devoto Yudhishthira che il Signore Krishna glorificò i ventiquattro Ekadashi primari, che distruggono il peccato, e ora ti racconterò una di quelle narrazioni. I grandi saggi hanno selezionato queste ventiquattro narrazioni dai diciotto Purana, perché sono veramente sublimi. Yudhishthira Maharaja disse: "O Signore Krishna, o Vasudeva, per favore accetta i miei umili omaggi. Per favore, descrivimi l'Ekadashi che si verifica durante la parte luminosa del mese di Chaitra [marzo-aprile]. Qual è il suo nome e quali sono le sue glorie?" Lord Shri Krishna rispose: "Oh Yudhishthira, per favore ascoltami attentamente mentre racconto l'antica storia di questa sacra Ekadashi, una storia che Vasishtha Muni un tempo era collegata al re Dilipa, il bisnonno di Lord Ramachandra. Il re Dilipa chiese al grande saggio Vasishtha: "Oh saggio brahmana, desidero conoscere l'Ekadashi che arriva durante la parte luminosa del mese di Chaitra. Per favore, descrivimelo". Vasishtha Muni rispose: "Oh re, la tua domanda è glorie. Sarò felice di dirti ciò che desideri sapere. L'Ekadashi che si verifica durante la quindicina di luce del Chaitra si chiama Kamada Ekadashi, consuma tutti i peccati, come un incendio boschivo consuma una scorta di legna da ardere secca, è molto purificante e conferisce il più alto merito a chi lo osserva fedelmente. O re, ora ascolta una storia antica che è così meritoria che rimuove tutti i peccati semplicemente essendo ascoltata. Una volta, molto tempo fa, esisteva una città-stato chiamata Ratnapura, che era decorata con oro e gioielli e in cui i serpenti dalle zanne affilate godevano dell'ebbrezza. Il re Pundarika era il sovrano di questo bellissimo regno, che contava molti Gandharva, Kinnara e Apsara tra i suoi cittadini. Tra i Gandharva c'erano Lalit e sua moglie Lalita, che era una ballerina particolarmente adorabile. Questi due erano intensamente attratti l'uno dall'altro e la loro casa era piena di grande ricchezza e buon cibo. Lalita amava teneramente suo marito, e allo stesso modo Lalit pensava costantemente a lei nel suo cuore. Una volta, alla corte del re Pundarika, molti Gandharva ballavano e Lalit cantava da solo, senza sua moglie. Non poteva fare a meno di pensare a lei mentre cantava, ea causa di questa distrazione perse di vista il metro e la melodia della canzone. In effetti, Lalit ha cantato la fine della sua canzone in modo improprio, e uno dei serpenti invidiosi che erano presenti alla corte del re si è lamentato con il re che Lalit era assorto nel pensare a sua moglie invece che al suo sovrano. Il re si infuriò sentendo ciò e i suoi occhi divennero cremisi per la rabbia. Improvvisamente gridò: 'Oh sciocco furfante, perché stavi pensando con lussuria a una donna invece di pensare con riverenza al tuo re mentre svolgevi i tuoi doveri di corte, maledico di diventare subito un cannibale! Oh re, Lalit divenne subito un temibile cannibale, un grande demone mangiatore di uomini il cui aspetto terrorizzava tutti. Le sue braccia erano lunghe otto miglia, la sua bocca era grande come un'enorme caverna, i suoi occhi erano terribili come il sole e la luna, le sue narici assomigliavano a enormi fosse nella terra, il suo collo era una vera montagna, i suoi fianchi erano larghi quattro miglia , e il suo corpo gigantesco era alto ben sessantaquattro miglia. Così il povero Lalit, l'amorevole cantante Gandharva, dovette subire la reazione della sua offesa contro il re Pundarika. Vedendo suo marito soffrire come un orribile cannibale, Lalita fu sopraffatta dal dolore. Pensò: 'Ora che il mio caro marito sta subendo gli effetti della maledizione dei re, quale sarà la mia sorte? Cosa dovrei fare? Dove dovrei andare?' In questo modo Lalita soffriva giorno e notte. Invece di godersi la vita come moglie di Gandharva, dovette vagare ovunque nella fitta giungla con il suo mostruoso marito, che era caduto completamente sotto l'incantesimo della maledizione del re ed era totalmente impegnato in terribili attività peccaminose. Vagava in modo irregolare attraverso la regione proibita, un Gandharva un tempo bellissimo ora ridotto al comportamento orribile di un mangiatore di uomini. Completamente sconvolta nel vedere il suo caro marito soffrire così tanto nelle sue terribili condizioni, Lalita iniziò a piangere mentre seguiva il suo folle viaggio. Per fortuna, tuttavia, un giorno Lalita incontrò il saggio Shringi. Era seduto sulla cima della famosa collina di Vindhyachala. Avvicinandosi a lui, offrì immediatamente all'asceta i suoi rispettosi omaggi. Il saggio la notò inchinarsi davanti a lui e disse: 'Oh bellissima, chi sei? Di chi sei figlia e perché sei venuta qui? Per favore, dimmi tutto in verità. Lalita rispose: "Oh grande età, sono la figlia del grande Gandharva Viradhanva, e il mio nome è Lalita. Vago per le foreste e le pianure con la mia cara marito, che il re Pundarika ha condannato a diventare un demone mangiatore di uomini. Oh brahmana, sono molto addolorato nel vedere la sua forma feroce e le sue attività terribilmente peccaminose. Oh maestro, per favore dimmi come posso compiere qualche atto di espiazione per conto del mio marito. Quale atto pio posso compiere per liberarlo da questa forma demoniaca, Oh migliore dei brahmana?" Il saggio rispose: "Oh fanciulla celeste, c'è un Ekadashi chiamato Kamada che si verifica nella quindicina di luce del mese di Chaitra. Arriverà presto. Chiunque digiuni in questo giorno ha tutti i suoi desideri soddisfatti. Se osservi questo digiuno di Ekadashi secondo le sue regole e regolamenti e dai il merito che guadagni così a tuo marito, sarà immediatamente liberato dalla maledizione." Lalita era felicissima di sentire queste parole dal saggio. Lalita osservava fedelmente il digiuno di Kamada Ekadashi secondo le istruzioni del saggio Shringi, e a Dvadashi apparve davanti a lui e alla Divinità del Signore Vasudeva e disse: "Ho osservato fedelmente il digiuno di Kamada Ekadashi. l'osservanza di questo digiuno, fa che mio marito sia libero dalla maledizione che lo ha trasformato in un cannibale demoniaco. Possa il merito che ho guadagnato così liberarlo dalla miseria." Non appena Lalita finì di parlare, suo marito, che si trovava lì vicino, fu subito liberato dalla maledizione del re. Immediatamente riacquistò la sua forma originale come Gandharva Lalit, un bel cantante celeste adornato con molti splendidi ornamenti. Ora, con sua moglie Lalita, poteva godere di ancora più opulenza di prima. Tutto questo è stato realizzato dal potere e dalla gloria di Kamada Ekadashi. Alla fine la coppia Gandharva salì a bordo di un aeroplano celeste e ascese al cielo." Lord Shri Krishna continuò: "Oh Yudhishthira, il migliore dei re, chiunque ascolti questa meravigliosa narrazione dovrebbe certamente osservare il santo Kamada Ekadashi al meglio delle sue capacità, tale grande merito conferisce al fedele devoto, perciò vi ho descritto le sue glorie a beneficio di tutta l'umanità. Non esiste Ekadashi migliore di Kamada Ekadashi. Può sradicare anche il peccato dell'uccisione di un brhmana, annulla anche le maledizioni demoniache e purifica la coscienza. In tutti e tre i mondi, tra esseri viventi mobili e immobili, non c'è giorno migliore." KAMADA EKADASHI English
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VIJAYA EKADASHI VIJAYA EKADASHI English
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KAMADA EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने पूछा: वासुदेव ! आपको नमस्कार है ! कृपया आप यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था। वशिष्ठजी बोले: राजन् ! चैत्र शुक्लपक्ष में 'कामदा' नाम की एकादशी होती ही वह परम पुण्यमयी है । पापरुपी ईँधन के लिए तो वह दावानल ही है । प्राचीन काल की बात है: नागपुर नाम का एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोने के महल बने हुए थे उस नगर में पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास ॕरते पुछ गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरी का सेरवन की वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था । उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था । वे दोनों पति पत्नी के रुप में रहते थे । दोनों ही परस्पर काम से पीड़ित रहा करते थे । ललिता के हृदय में सदा पति की ही मूर्ति बसी रहती थी और ललित के हृदय में सुन्दरी ललिता का नित्य निवास था। एक दिन की बात है । नागराज पुण्डरीक राजसभा में बैठकर मनोरंान कर रहहर उस समय ललित का गान हो रहा था किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी गाते-गाते उसे ललिता का स्मरण हो आया । अत: उसके पैरों की गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लीभ नागों में श्रेष्ठ कर्कोटक को ललित मन का सन्ताप ज्ञात हो गय गय अत: उसने राजा पुण all'avore कर्कोटक की बात सुनकर नागराज पुण all'avore उसने गाते हुए कामातुर ललित को शाप दिया : 'दुर्धुद्! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नी के वशीभूत हो गया, इसलिए राक्षस हो जा। ' महाराज पुण्डरीक के इतना कहते ही गन गन्धर्व राक्षस हो हो गय। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रुप - ऐसा राक्षस होकर वह कर्म का फल भोगने लगा। ललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन ही बहुत चिन चिन्तित हुई। भारी दु:ख से वह कष्ट पाने लगी । सोचने लगी: 'क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं…' वह रोती हुई घने जंगलों में पति के पीछे-पीछे घूमननॲे वन में उसे एक सुन्दर आश all'avore किसी भी प्राणी के साथ उनका वैर विरोध नहीं था । ललिता शीघ्र amici मुनि बड़े दयालु थे । उस दु:खिनी को देखकर वे इस प्रकार बोले : 'शुभे! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच-सच बताओ ।' ललिता ने कहा: महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं । मैं उन्हीं महात्मा की पुत्री हूँ । मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी अपने पाप दोष के कारण राक्षस हो गये ंै उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है । ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्त्तव्य हो, वह बताइये । विप्रवर! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षसभाव से छुटकारा पा जायें, उसका उपदेश कीजिये ॠषि बोले: भद्रे ! इस समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की 'कामदा' नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है है तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व all'avore पुण्य देने पर क्षणभर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जायेगा। राजन् ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ । उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के उन ब all'avore a मेरे पति का राक्षसभाव दूर हो जाय ।' वशिष्ठजी कहते हैं: ललिता के इतना कहते ही उसी क्षण ललित का पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया । राक्षसभाव चला गया और पुन: Per saperne di più नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति पत्नी 'कामदा' के प्रभ Schose यह जानकर इस एकादशी के व all'avore मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इस व्रत का वर्णन किया है है 'कामदा एकादशी' ब all'avore राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता हे Shri Suta Goswami disse: "Oh saggi, permettetemi di offrire i miei umili e rispettosi omaggi al Signore Supremo Hari, Bhagavan Shri Krishna, il figlio di Devaki e Vasudeva, per la cui misericordia posso descrivere il giorno di digiuno che rimuove tutti i tipi di peccati. Fu al devoto Yudhishthira che il Signore Krishna glorificò i ventiquattro Ekadashi primari, che distruggono il peccato, e ora ti racconterò una di quelle narrazioni. I grandi saggi hanno selezionato queste ventiquattro narrazioni dai diciotto Purana, perché sono veramente sublimi. Yudhishthira Maharaja disse: "O Signore Krishna, o Vasudeva, per favore accetta i miei umili omaggi. Per favore, descrivimi l'Ekadashi che si verifica durante la parte luminosa del mese di Chaitra [marzo-aprile]. Qual è il suo nome e quali sono le sue glorie?" Lord Shri Krishna rispose: "Oh Yudhishthira, per favore ascoltami attentamente mentre racconto l'antica storia di questa sacra Ekadashi, una storia che Vasishtha Muni un tempo era collegata al re Dilipa, il bisnonno di Lord Ramachandra. Il re Dilipa chiese al grande saggio Vasishtha: "Oh saggio brahmana, desidero conoscere l'Ekadashi che arriva durante la parte luminosa del mese di Chaitra. Per favore, descrivimelo". Vasishtha Muni rispose: "Oh re, la tua domanda è glorie. Sarò felice di dirti ciò che desideri sapere. L'Ekadashi che si verifica durante la quindicina di luce del Chaitra si chiama Kamada Ekadashi, consuma tutti i peccati, come un incendio boschivo consuma una scorta di legna da ardere secca, è molto purificante e conferisce il più alto merito a chi lo osserva fedelmente. O re, ora ascolta una storia antica che è così meritoria che rimuove tutti i peccati semplicemente essendo ascoltata. Una volta, molto tempo fa, esisteva una città-stato chiamata Ratnapura, che era decorata con oro e gioielli e in cui i serpenti dalle zanne affilate godevano dell'ebbrezza. Il re Pundarika era il sovrano di questo bellissimo regno, che contava molti Gandharva, Kinnara e Apsara tra i suoi cittadini. Tra i Gandharva c'erano Lalit e sua moglie Lalita, che era una ballerina particolarmente adorabile. Questi due erano intensamente attratti l'uno dall'altro e la loro casa era piena di grande ricchezza e buon cibo. Lalita amava teneramente suo marito, e allo stesso modo Lalit pensava costantemente a lei nel suo cuore. Una volta, alla corte del re Pundarika, molti Gandharva ballavano e Lalit cantava da solo, senza sua moglie. Non poteva fare a meno di pensare a lei mentre cantava, ea causa di questa distrazione perse di vista il metro e la melodia della canzone. In effetti, Lalit ha cantato la fine della sua canzone in modo improprio, e uno dei serpenti invidiosi che erano presenti alla corte del re si è lamentato con il re che Lalit era assorto nel pensare a sua moglie invece che al suo sovrano. Il re si infuriò sentendo ciò e i suoi occhi divennero cremisi per la rabbia. Improvvisamente gridò: 'Oh sciocco furfante, perché stavi pensando con lussuria a una donna invece di pensare con riverenza al tuo re mentre svolgevi i tuoi doveri di corte, maledico di diventare subito un cannibale! Oh re, Lalit divenne subito un temibile cannibale, un grande demone mangiatore di uomini il cui aspetto terrorizzava tutti. Le sue braccia erano lunghe otto miglia, la sua bocca era grande come un'enorme caverna, i suoi occhi erano terribili come il sole e la luna, le sue narici assomigliavano a enormi fosse nella terra, il suo collo era una vera montagna, i suoi fianchi erano larghi quattro miglia , e il suo corpo gigantesco era alto ben sessantaquattro miglia. Così il povero Lalit, l'amorevole cantante Gandharva, dovette subire la reazione della sua offesa contro il re Pundarika. Vedendo suo marito soffrire come un orribile cannibale, Lalita fu sopraffatta dal dolore. Pensò: 'Ora che il mio caro marito sta subendo gli effetti della maledizione dei re, quale sarà la mia sorte? Cosa dovrei fare? Dove dovrei andare?' In questo modo Lalita soffriva giorno e notte. Invece di godersi la vita come moglie di Gandharva, dovette vagare ovunque nella fitta giungla con il suo mostruoso marito, che era caduto completamente sotto l'incantesimo della maledizione del re ed era totalmente impegnato in terribili attività peccaminose. Vagava in modo irregolare attraverso la regione proibita, un Gandharva un tempo bellissimo ora ridotto al comportamento orribile di un mangiatore di uomini. Completamente sconvolta nel vedere il suo caro marito soffrire così tanto nelle sue terribili condizioni, Lalita iniziò a piangere mentre seguiva il suo folle viaggio. Per fortuna, tuttavia, un giorno Lalita incontrò il saggio Shringi. Era seduto sulla cima della famosa collina di Vindhyachala. Avvicinandosi a lui, offrì immediatamente all'asceta i suoi rispettosi omaggi. Il saggio la notò inchinarsi davanti a lui e disse: 'Oh bellissima, chi sei? Di chi sei figlia e perché sei venuta qui? Per favore, dimmi tutto in verità. Lalita rispose: "Oh grande età, sono la figlia del grande Gandharva Viradhanva, e il mio nome è Lalita. Vago per le foreste e le pianure con la mia cara marito, che il re Pundarika ha condannato a diventare un demone mangiatore di uomini. Oh brahmana, sono molto addolorato nel vedere la sua forma feroce e le sue attività terribilmente peccaminose. Oh maestro, per favore dimmi come posso compiere qualche atto di espiazione per conto del mio marito. Quale atto pio posso compiere per liberarlo da questa forma demoniaca, Oh migliore dei brahmana?" Il saggio rispose: "Oh fanciulla celeste, c'è un Ekadashi chiamato Kamada che si verifica nella quindicina di luce del mese di Chaitra. Arriverà presto. Chiunque digiuni in questo giorno ha tutti i suoi desideri soddisfatti. Se osservi questo digiuno di Ekadashi secondo le sue regole e regolamenti e dai il merito che guadagni così a tuo marito, sarà immediatamente liberato dalla maledizione." Lalita era felicissima di sentire queste parole dal saggio. Lalita osservava fedelmente il digiuno di Kamada Ekadashi secondo le istruzioni del saggio Shringi, e a Dvadashi apparve davanti a lui e alla Divinità del Signore Vasudeva e disse: "Ho osservato fedelmente il digiuno di Kamada Ekadashi. l'osservanza di questo digiuno, fa che mio marito sia libero dalla maledizione che lo ha trasformato in un cannibale demoniaco. Possa il merito che ho guadagnato così liberarlo dalla miseria." Non appena Lalita finì di parlare, suo marito, che si trovava lì vicino, fu subito liberato dalla maledizione del re. Immediatamente riacquistò la sua forma originale come Gandharva Lalit, un bel cantante celeste adornato con molti splendidi ornamenti. Ora, con sua moglie Lalita, poteva godere di ancora più opulenza di prima. Tutto questo è stato realizzato dal potere e dalla gloria di Kamada Ekadashi. Alla fine la coppia Gandharva salì a bordo di un aeroplano celeste e ascese al cielo." Lord Shri Krishna continuò: "Oh Yudhishthira, il migliore dei re, chiunque ascolti questa meravigliosa narrazione dovrebbe certamente osservare il santo Kamada Ekadashi al meglio delle sue capacità, tale grande merito conferisce al fedele devoto, perciò vi ho descritto le sue glorie a beneficio di tutta l'umanità. Non esiste Ekadashi migliore di Kamada Ekadashi. Può sradicare anche il peccato dell'uccisione di un brhmana, annulla anche le maledizioni demoniache e purifica la coscienza. In tutti e tre i mondi, tra esseri viventi mobili e immobili, non c'è giorno migliore." KAMADA EKADASHI English
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KAMADA EKADASHI Inglese युधिष्ठिर ने पूछा: वासुदेव ! आपको नमस्कार है ! कृपया आप यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था। वशिष्ठजी बोले: राजन् ! चैत्र शुक्लपक्ष में 'कामदा' नाम की एकादशी होती ही वह परम पुण्यमयी है । पापरुपी ईँधन के लिए तो वह दावानल ही है । प्राचीन काल की बात है: नागपुर नाम का एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोने के महल बने हुए थे उस नगर में पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास ॕरते पुछ गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरी का सेरवन की वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था । उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था । वे दोनों पति पत्नी के रुप में रहते थे । दोनों ही परस्पर काम से पीड़ित रहा करते थे । ललिता के हृदय में सदा पति की ही मूर्ति बसी रहती थी और ललित के हृदय में सुन्दरी ललिता का नित्य निवास था। एक दिन की बात है । नागराज पुण्डरीक राजसभा में बैठकर मनोरंान कर रहहर उस समय ललित का गान हो रहा था किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी गाते-गाते उसे ललिता का स्मरण हो आया । अत: उसके पैरों की गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लीभ नागों में श्रेष्ठ कर्कोटक को ललित मन का सन्ताप ज्ञात हो गय गय अत: उसने राजा पुण all'avore कर्कोटक की बात सुनकर नागराज पुण all'avore उसने गाते हुए कामातुर ललित को शाप दिया : 'दुर्धुद्! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नी के वशीभूत हो गया, इसलिए राक्षस हो जा। ' महाराज पुण्डरीक के इतना कहते ही गन गन्धर्व राक्षस हो हो गय। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रुप - ऐसा राक्षस होकर वह कर्म का फल भोगने लगा। ललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन ही बहुत चिन चिन्तित हुई। भारी दु:ख से वह कष्ट पाने लगी । सोचने लगी: 'क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं…' वह रोती हुई घने जंगलों में पति के पीछे-पीछे घूमननॲे वन में उसे एक सुन्दर आश all'avore किसी भी प्राणी के साथ उनका वैर विरोध नहीं था । ललिता शीघ्र amici मुनि बड़े दयालु थे । उस दु:खिनी को देखकर वे इस प्रकार बोले : 'शुभे! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच-सच बताओ ।' ललिता ने कहा: महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं । मैं उन्हीं महात्मा की पुत्री हूँ । मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी अपने पाप दोष के कारण राक्षस हो गये ंै उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है । ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्त्तव्य हो, वह बताइये । विप्रवर! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षसभाव से छुटकारा पा जायें, उसका उपदेश कीजिये ॠषि बोले: भद्रे ! इस समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की 'कामदा' नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है है तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व all'avore पुण्य देने पर क्षणभर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जायेगा। राजन् ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ । उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के उन ब all'avore a मेरे पति का राक्षसभाव दूर हो जाय ।' वशिष्ठजी कहते हैं: ललिता के इतना कहते ही उसी क्षण ललित का पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया । राक्षसभाव चला गया और पुन: Per saperne di più नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति पत्नी 'कामदा' के प्रभ Schose यह जानकर इस एकादशी के व all'avore मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इस व्रत का वर्णन किया है है 'कामदा एकादशी' ब all'avore राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता हे Shri Suta Goswami disse: "Oh saggi, permettetemi di offrire i miei umili e rispettosi omaggi al Signore Supremo Hari, Bhagavan Shri Krishna, il figlio di Devaki e Vasudeva, per la cui misericordia posso descrivere il giorno di digiuno che rimuove tutti i tipi di peccati. Fu al devoto Yudhishthira che il Signore Krishna glorificò i ventiquattro Ekadashi primari, che distruggono il peccato, e ora ti racconterò una di quelle narrazioni. I grandi saggi hanno selezionato queste ventiquattro narrazioni dai diciotto Purana, perché sono veramente sublimi. Yudhishthira Maharaja disse: "O Signore Krishna, o Vasudeva, per favore accetta i miei umili omaggi. Per favore, descrivimi l'Ekadashi che si verifica durante la parte luminosa del mese di Chaitra [marzo-aprile]. Qual è il suo nome e quali sono le sue glorie?" Lord Shri Krishna rispose: "Oh Yudhishthira, per favore ascoltami attentamente mentre racconto l'antica storia di questa sacra Ekadashi, una storia che Vasishtha Muni un tempo era collegata al re Dilipa, il bisnonno di Lord Ramachandra. Il re Dilipa chiese al grande saggio Vasishtha: "Oh saggio brahmana, desidero conoscere l'Ekadashi che arriva durante la parte luminosa del mese di Chaitra. Per favore, descrivimelo". Vasishtha Muni rispose: "Oh re, la tua domanda è glorie. Sarò felice di dirti ciò che desideri sapere. L'Ekadashi che si verifica durante la quindicina di luce del Chaitra si chiama Kamada Ekadashi, consuma tutti i peccati, come un incendio boschivo consuma una scorta di legna da ardere secca, è molto purificante e conferisce il più alto merito a chi lo osserva fedelmente. O re, ora ascolta una storia antica che è così meritoria che rimuove tutti i peccati semplicemente essendo ascoltata. Una volta, molto tempo fa, esisteva una città-stato chiamata Ratnapura, che era decorata con oro e gioielli e in cui i serpenti dalle zanne affilate godevano dell'ebbrezza. Il re Pundarika era il sovrano di questo bellissimo regno, che contava molti Gandharva, Kinnara e Apsara tra i suoi cittadini. Tra i Gandharva c'erano Lalit e sua moglie Lalita, che era una ballerina particolarmente adorabile. Questi due erano intensamente attratti l'uno dall'altro e la loro casa era piena di grande ricchezza e buon cibo. Lalita amava teneramente suo marito, e allo stesso modo Lalit pensava costantemente a lei nel suo cuore. Una volta, alla corte del re Pundarika, molti Gandharva ballavano e Lalit cantava da solo, senza sua moglie. Non poteva fare a meno di pensare a lei mentre cantava, ea causa di questa distrazione perse di vista il metro e la melodia della canzone. In effetti, Lalit ha cantato la fine della sua canzone in modo improprio, e uno dei serpenti invidiosi che erano presenti alla corte del re si è lamentato con il re che Lalit era assorto nel pensare a sua moglie invece che al suo sovrano. Il re si infuriò sentendo ciò e i suoi occhi divennero cremisi per la rabbia. Improvvisamente gridò: 'Oh sciocco furfante, perché stavi pensando con lussuria a una donna invece di pensare con riverenza al tuo re mentre svolgevi i tuoi doveri di corte, maledico di diventare subito un cannibale! Oh re, Lalit divenne subito un temibile cannibale, un grande demone mangiatore di uomini il cui aspetto terrorizzava tutti. Le sue braccia erano lunghe otto miglia, la sua bocca era grande come un'enorme caverna, i suoi occhi erano terribili come il sole e la luna, le sue narici assomigliavano a enormi fosse nella terra, il suo collo era una vera montagna, i suoi fianchi erano larghi quattro miglia , e il suo corpo gigantesco era alto ben sessantaquattro miglia. Così il povero Lalit, l'amorevole cantante Gandharva, dovette subire la reazione della sua offesa contro il re Pundarika. Vedendo suo marito soffrire come un orribile cannibale, Lalita fu sopraffatta dal dolore. Pensò: 'Ora che il mio caro marito sta subendo gli effetti della maledizione dei re, quale sarà la mia sorte? Cosa dovrei fare? Dove dovrei andare?' In questo modo Lalita soffriva giorno e notte. Invece di godersi la vita come moglie di Gandharva, dovette vagare ovunque nella fitta giungla con il suo mostruoso marito, che era caduto completamente sotto l'incantesimo della maledizione del re ed era totalmente impegnato in terribili attività peccaminose. Vagava in modo irregolare attraverso la regione proibita, un Gandharva un tempo bellissimo ora ridotto al comportamento orribile di un mangiatore di uomini. Completamente sconvolta nel vedere il suo caro marito soffrire così tanto nelle sue terribili condizioni, Lalita iniziò a piangere mentre seguiva il suo folle viaggio. Per fortuna, tuttavia, un giorno Lalita incontrò il saggio Shringi. Era seduto sulla cima della famosa collina di Vindhyachala. Avvicinandosi a lui, offrì immediatamente all'asceta i suoi rispettosi omaggi. Il saggio la notò inchinarsi davanti a lui e disse: 'Oh bellissima, chi sei? Di chi sei figlia e perché sei venuta qui? Per favore, dimmi tutto in verità. Lalita rispose: "Oh grande età, sono la figlia del grande Gandharva Viradhanva, e il mio nome è Lalita. Vago per le foreste e le pianure con la mia cara marito, che il re Pundarika ha condannato a diventare un demone mangiatore di uomini. Oh brahmana, sono molto addolorato nel vedere la sua forma feroce e le sue attività terribilmente peccaminose. Oh maestro, per favore dimmi come posso compiere qualche atto di espiazione per conto del mio marito. Quale atto pio posso compiere per liberarlo da questa forma demoniaca, Oh migliore dei brahmana?" Il saggio rispose: "Oh fanciulla celeste, c'è un Ekadashi chiamato Kamada che si verifica nella quindicina di luce del mese di Chaitra. Arriverà presto. Chiunque digiuni in questo giorno ha tutti i suoi desideri soddisfatti. Se osservi questo digiuno di Ekadashi secondo le sue regole e regolamenti e dai il merito che guadagni così a tuo marito, sarà immediatamente liberato dalla maledizione." Lalita era felicissima di sentire queste parole dal saggio. Lalita osservava fedelmente il digiuno di Kamada Ekadashi secondo le istruzioni del saggio Shringi, e a Dvadashi apparve davanti a lui e alla Divinità del Signore Vasudeva e disse: "Ho osservato fedelmente il digiuno di Kamada Ekadashi. l'osservanza di questo digiuno, fa che mio marito sia libero dalla maledizione che lo ha trasformato in un cannibale demoniaco. Possa il merito che ho guadagnato così liberarlo dalla miseria." Non appena Lalita finì di parlare, suo marito, che si trovava lì vicino, fu subito liberato dalla maledizione del re. Immediatamente riacquistò la sua forma originale come Gandharva Lalit, un bel cantante celeste adornato con molti splendidi ornamenti. Ora, con sua moglie Lalita, poteva godere di ancora più opulenza di prima. Tutto questo è stato realizzato dal potere e dalla gloria di Kamada Ekadashi. Alla fine la coppia Gandharva salì a bordo di un aeroplano celeste e ascese al cielo." Lord Shri Krishna continuò: "Oh Yudhishthira, il migliore dei re, chiunque ascolti questa meravigliosa narrazione dovrebbe certamente osservare il santo Kamada Ekadashi al meglio delle sue capacità, tale grande merito conferisce al fedele devoto, perciò vi ho descritto le sue glorie a beneficio di tutta l'umanità. Non esiste Ekadashi migliore di Kamada Ekadashi. Può sradicare anche il peccato dell'uccisione di un brhmana, annulla anche le maledizioni demoniache e purifica la coscienza. In tutti e tre i mondi, tra esseri viventi mobili e immobili, non c'è giorno migliore." KAMADA EKADASHI English
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6 jan 2025
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Quote of the day 03/JAN/2025 Today's of Srila Prabhupada and Radha Govinda Das Goswami Maharaj quote. 02/JAN/2025 Today's of Srila Prabhupada and Radha Govinda Das Goswami Maharaj quote. 01/JAN/2025 Today's of Srila Prabhupada and Radha Govinda Das Goswami Maharaj quote.